जब भी मैं ये लिखने की कोशिश करता हूँ, तो सोचता हूँ कि ये किसके लिए लिख रहा हूँ? क्या ये आपके लिए है? आप, जो अब हमारे बीच नहीं हैं? या शायद ये मेरे लिए है? मैं, जो इसे पूरा करके सही समय पर पढ़ना चाहता था? या फिर ये दूसरों के लिए है? वे अन्य लोग, जिन्हें आपके बारे में पता हो या न हो। या कहीं ये शोकगीत तो नहीं है? एक अधूरा शोकगीत, जिसे मैं दे नहीं सका। मुझे अभी इसका जवाब नहीं पता।
जब भी आपका ख्याल आता है, तो सबसे पहले खाली कुर्सी और नानी माँ की छड़ी का नज़ारा दिमाग में आता है। मैं खुद को उस कुर्सी के सामने बैठकर उसे घूरते हुए देखता हूँ। आप के साथ हुईं वो ढेर सारी बातचीतें याद करने की कोशिश करता हूँ। सुबह जल्दी उठना, गरमा गरम चाय का गिलास लिए घर से बाहर निकलना, अख़बार ढूंढना और फिर अपनी कुर्सी पर बैठकर उसे पढ़ना शुरू करना। लेकिन पढ़ना शुरू करने से पहले आप अख़बार के कुछ पन्ने मुझे थमा देते थे। मैं उन्हें ले लेता था, आपकी जिज्ञासा को (इस उम्र में भी) देखकर ख़ुश होता था और अपना अख़बार पढ़ता रहता था। आपके पहले पठन खत्म होने का इंतज़ार करता था और फिर स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह की खबरों पर आपकी राय सुनने के लिए उत्सुक रहता था। आज भी यही सोचता हूँ कि क्या जिज्ञासु स्वभाव मुझे आपसे ही विरासत में मिला है?
आपके सहयोग, प्यार और स्नेह के लिए मैं हमेशा आभारी हूँ। बचपन से ही आपका ये समर्थन, हर मुश्किल समय में मेरा हौसला बढ़ाना और हर छोटी-बड़ी उपलब्धि पर ध्यान देना - ये सब मेरे लिए बहुत मायने रखता है। आपसे मिलने-जुलने, बातें करने और आपके किस्से सुनने का मैं हमेशा इंतज़ार करता था, जब तक कि वो मौका न रहा। लेकिन पढ़ाई के लिए आपके प्रोत्साहन के लिए मैं आपका विशेष रूप से आभारी हूँ। आप ज़िंदगी में मेरे उन गिने-चुने लोगों में से एक थे जो मुझे समझते थे और हर छोटी सी सफलता के बाद आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे।